Tuesday, July 14, 2009

भूल नहीं मैं पा रहा......

भूल नहीं मैं पा रहा उस आवाज को
जो सुना था मैंने कल रात को ।

जीवन को जो मेरे मधुर बना गयी
याद कर रहा हूँ उस मिठास को ।

अनहोनी बात नहीं ये सच है
सुन रहा हूँ अब भी मैं उस झंकार को ।

मन मेरा अब तृप्त हुआ, बस तृप्त हुआ
सुनकर उस सुर को उस ताल को ।

Sunday, March 8, 2009

इंतज़ार

सुबह से ही टकटकी लगाये बैठा हूँ
कभी दरवाजे को, तो कभी सुनी गलियों को निहारता हूँ
हर पल लगता है, जैसे अभी दरवाजे पर दस्तक होगी
और तुम्हारा चेहरा सामने होगा

इंतज़ार की घडियां बढ़ रही है
दिल भी बेकल हो रहा है
सैकडों अंदेशे सामने आ रहे हैं
तुम न आकर, ये कैसी सज़ा मेरे दिल को दे रही हो

दिल ये पूछता है, कहाँ रह गयी हो तुम
तुम आती क्यों नहीं ?
क्या भूल गए वो वादा, क्या बदल गया तुम्हारा इरादा ?
आज ही तो रविवार है
तुम्हारे आने का सुबह से इंतज़ार है

वक्त कह रहा है तुम नहीं आओगी
पर दिल कह रहा है तुम ज़रूर आओगी
तुम आओगी क्योंकि तुम मेरे दिल में हो
और सच तो ये है मैं भी तुम्हारे दिल में हूँ

बीतता जा रहा है ये पल
बढता जा रहा है मेरा गम
अंदेशों की सैकडों मीनारें खड़ी हो चुकी है
दिल का विश्वास भी डगमगा रहा है

कुछ क्षण मैं और रुकुंगा
सांसों की डोर मैं अभी छोरुगा
पर तुम मेरे विश्वास को तोड़ न देना
झूठा ही सही, इक बार तुम चली आना।

Monday, February 16, 2009

मनमीत

अँखियाँ खोये जब धीर

और गंगा के हो तीर

और पूरबा गए प्रेम के गीत

तब तुम आना बन मनमीत, चली आना तुम मनमीत ।

जब बसंत की हो धूम

और फूल हँसे झूम झूम

और कोयल गाये कूक कूक

तब तुम आना बन मनमीत, चली आना तुम मनमीत ।

जब सावन की हो हलकी फुहार

और चांदनी सी हो रात

और आसमान पर हो तारों की बरात

तब तुम आना बन मनमीत, चली आना तुम मनमीत ।

जब तुमसे मिलने की हो आस

और तुम्हारी याद सताए दिन रात

और शहनाई गूंजे सारी रात

तब तुम आना बन मनमीत, चली आना तुम मनमीत ।

संवेदना

तुम कहते सावन आया है
मैं कहता छत टपक रहा।

तुम कहते मन मोहता बारिश
मैं कहता तन भीग रहा।

तुम कहते चलो बागों में
मैं कहता साँझ ढल रही।

तुम कहते रमणीक बेला है
मैं कहता मृगतृष्णा है।

तुम ही बताओ अब प्रिये
कैसी ये संवेदना है?

Sunday, February 8, 2009

अकेलेपन का अहसास

उनके साथ न होने के ख्याल से हीं
भङक उठती है अकेलेपन के अहसास की चिंगारी।
ये चिंगारी सुलगती रहती है जैसे
चिता के राख से लिपटकर सुलगती है एक चोटी सी चिंगारी.

ये चिंगारी पहले दिल को दुखाती है
फिर धीरे धीरे ये जिस्म को खोखला करती है
फिर अंत में ये प्राण को भी हर लेती है।

हम अकेलेपन के इस अहसास से बचने के लिए क्या नहीं करते
कभी हम यादों के दिये जलाते हैं
तो कभी हम यादों के मयकदों में जाते हैं।
पर अफ़सोस, ये अहसास हमे एक पल के लिए भी आजाद नही करता
हाँ सच ही तो है हम गुलाम हैं तुम्हारे।